सोचता हूं, घर से बाहर निकलूं
पर कहां?
घर से बाहर हैं घरों की कतारें
इनके बीच सड़कों पर रेंगती भीड़
कुछ पेड़ हैं, जो लगा दिए गए हैं किनारे।
सोचता हूं, इस शहर से बाहर चलूं
पर कहां?
शहर के बाहर बसे हैं बहुतेरे शहर
इनके बीच दौड़ती है भूख इनसान का भेस बनाकर
कुछ खेत हैं, जो चढ़ने वाले हैं किसी सेज (अब सेठ नहीं) की नजर।
सोचता हूं, देश से बाहर उड़ूं पर कहां?
देश के बाहर हैं बहुत से देश
इनके बीच के समन्दर पर तभी पुल बनता है जब जीतनी हो कोई जंग
कुछ कश्तियां हैं पर अलग हैं सबके भेस।
यह मेरी जड़ता है
या मुझमें नहीं है इतनी भूख कि निकल सकूं
इस घर
इस शहर
या
देश से बाहर।
-सुधीर राघव
Thursday, June 19, 2008
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1 comment:
बढ़िया, भाई ये तो हुई कुछ बात। इस ब्लॉग में पहली बार दिखा कि तूने ख़बर मॉडिफ़ाई करके कविता नहीं बनाई है.... मेरे बोलने के बाद ही तेरी प्रतिभा बाहर आती है...क्यों
भूल-चूक लेणी देणी
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